पतंगें जो ऊँची उड़ती हैं,
ओझल होने से पहले
टीस जाती हैं मन को
बिछड़े किसी की याद,
नम कर जाती हैं फिर से,
गुज़री किसी सिसकी को
घुमड़ के चल देती है रेलें
पटरियाँ बनी रहती हैं वहीँ ,
राह बताती उस आख़री डिब्बे को
कलम जो घिस जाती हैं,
अपने लिखे में फिर फिर पढ़ जाती हैं
भूली हुई अपनी जीवनी को
जुड़ कर ज़मीं से, जमें रहते हैं मील के पत्थर
ढीठ बन मुस्कराते, दिलासा देते हर डगर
ना मान हार, बस थोड़ा सा तो और है सफर
ओझल होने से पहले
टीस जाती हैं मन को
बिछड़े किसी की याद,
नम कर जाती हैं फिर से,
गुज़री किसी सिसकी को
घुमड़ के चल देती है रेलें
पटरियाँ बनी रहती हैं वहीँ ,
राह बताती उस आख़री डिब्बे को
कलम जो घिस जाती हैं,
अपने लिखे में फिर फिर पढ़ जाती हैं
भूली हुई अपनी जीवनी को
जुड़ कर ज़मीं से, जमें रहते हैं मील के पत्थर
ढीठ बन मुस्कराते, दिलासा देते हर डगर
ना मान हार, बस थोड़ा सा तो और है सफर







