Wednesday, November 11, 2009

कितनी बार मायूसी को दरवाज़े तक छोड़ आयी , कमबख्त जाने कहाँ से फिर आ जाती है, लगता है गाडी की पिछली सीट पर डाल कर, दूर छोड़ आना होगा, वापस आते हुए , आगे की सीट पर अल्हड हवा को बिठा लाऊंगी , शायद मेरे घर चहलकदमी करे तो मायूसी फिर ना आये

Monday, November 9, 2009

नये रंग


जब तुम पास थे,
सारा आकाश मुझमे ही था ,
बस हाथ फैला देती थी,
जब उड़ने का मन करता था |

रंग भी सब मुझ में ही थे ,
जब चाहे ब्रश डुबा के उनमे,
आस- पास रंग भर देती थी
हरा, लाल, नीला-पीला, धानी

अब तुम नहीं हो तो,
हाथ फैलाने से मन उड़ता नहीं इसलिए
अपनी पहचान का आकाश बना रही हूँ ,

और नये रंग खोज रही हूँ ,
एक मिला है आत्म -विश्वास का,
बाकी सब रंग उसी से बन जायेंगे ,
पहले से चटक और एकदम पक्के |

Tuesday, October 27, 2009

ओस के मोती


शरद पूर्णिमा की उस रात ने
जो ओस के मोतियों का हार
पतझड़ के पीले पातों को उपहार दिया था,
पश्चिमी हवा के उस सर्द झोंके ने तोड़ दिया है|

कुछ मोती बूटों के बीच अटक गए हैं
तुम वहाँ जाओ तो सहेज आना उन्हें |
नहीं तो कल धूप की चूनर में छुपने की कोशिश करेंगी
और नटखट सूरज,
उनको चांदी का वर्क लगी इलायची समझ खा जाएगा |

Thursday, October 22, 2009

नया स्वेटर


सडकों के ताने-बाने से शहर बुन दिया ,
रोशनी के चमकते धागे चुन -चुन
कसीदाकारी कर उसे नया रंग दिया |

गिरहें डाळ- डाळ राहों की,
इस कोने से वो कोना जोङा |
फंदे गिन, सलाइयों पर चढ़ा,
शहर के गले-बाजू सब बुन दिए |

आङी-तिरछी, ऊँची-नीची इमारतें बना,
इस ताने-बाने को नए दस्तूर का नाम दिया |

और फिर .........

सरपट दौङती गाङियों से
इस ताने-बाने को धड़कन भी दी |

लगता है
ऊपर वाले का बनाया बेंतहा खूबसूरत स्वेटर
कुछ ज्यादा ही
हरा था ,
इसलिए इंसान ने उधेड़ दिया, नया बुनने के लिए |
बस थोड़ी ऊन रख ली है
नये स्वेटर पर हरे बूटे काढ़ने के लिए |

इस नये को पहनने की होड़ लगी है
और ये फैलता जा रहा है फंदा-दर-फंदा |

Tuesday, October 20, 2009

मीठे ख्वाब

आज सुबह उठी तो कमरे में भीनी सी खुशबू थी ,

चूल्हे की तपत से फर्श भी गुनगुना सा लगा,

आस-पास देखा कारण समझ ना आया

कुर्सी पर बैठी तो फिर आँख लग गयी

और जब उठी तो पेट भरा सा लगा,

हाँ! शायद

आज फिर ख्वाब में मैंने माँ के हाथ से खाना खाया



ऐसे मीठे ख्वाब मुझे अक्सर आते हैं