Tuesday, July 31, 2007

थोङी और हरियाली


एक क्यारी में कच्ची सी,
एक पौधा लगा दिया है

जो पावस की बूँदों को,
नन्हीं पत्तियों में समेटता है

झोंकों से हवाओँ के,
लङता कभी, कभी झगङता है

किरणों की पीली छटा में,
अलसाता कभी, कभी निखरता है

ताल को बारिश की,
राग मल्हार समझ थिरकता है

दरारों में मिट्टी की,
अपने भावी आकार बुनता है

पर भूरी उदासी को मिटाने को,
थोङी और हरियाली के स्वप्न रचता है

लम्हे

लम्हों को सज़ाकर,
करीने से तह कर दिया है,
शायद माँ के कमरे में,
कोई बक्सा हो, इन्हें छुपाने के लिये
पर जानती हूँ जब भी बन्द करती हूँ इन्हें,
किसी सन्दूक या बक्से में,
दीवार पर टँग जाते हैं ये,
आढे- तिरछे आकार लिये,
पुराने दस्तूर की खूँटी की तरह