Sunday, May 23, 2010

मीठा एहसास


खिङकियो के जंगले पर,

हौले से इधर -उधर झाँकती है

मेरे आँगन की चटाई पर बैठ ,

मेरा हाथ बँटाती है

बरामदे की क्यारियों में,

चुपके से फूलों से बाते कर जाती है

घर के दरवाजों पर चढ- चढ,

आङी- तिरछी सूरत बनाती है

कोने में रखी सुराही से,

सारा पानी पी जाती है

मेरे गीले बालों में रुकी बून्दों को,

चोरी से साथ ले जाती है

पङोसियों की कनखियों का,

जब-तब आसरा बन जाती है

तितलियों की अठखेलियों को,

नयी दिशा दे जाती है

ताज़ा धान की पूलियों को,

भीनी-भीनी खुशबू दे जाती है

ईख के खेतों से गुज़र कर,

गुङ की मिठास साथ लाती है

कपास के सफेद फूलों को ,

इठलाता रंग दे जाती है

सरसों की फसल के बीच से,

पीले कपङे पहन कर आती है

मटर के हरे दानों से,

ताज़गी का सिंगार कर आती है

साँझ ढले चिङियों से,लौटते हुए ,

जाने क्या कह जाती है

मेरे उदास गालों को,

कभी-कभी प्यार से सहला जाती है

हाँ! जाङे की धूप किसी अपने के,

प्यार भरे आलिंगन का

मीठा एहसास दे जाती है

प्रिय पाती !


तुम जा रही हो ,उनके पास ,
प्रिय पाती !
बताना ,उनको वो बातें ,जो मैं नही बताती

बताना, कैसे शब्दों को पिरोया है मैंने, भावों में,
वाक्य-रचना नहीं मुझे आती

बताना, कैसे अभ्यास नहीं, मुझे लिखने का ,
इसलिए शब्दों को रही घुमाती

बताना, कैसे मेरी उँगलियाँ चलती रही ,रात भर,
उनके एह्सास से ,मेरी सारी थकन रही जाती

बताना, कैसे स्वप्न देते रहे दस्तक ,
और मैं उन्हें , मीठी झिङकी दे सुलाती

बताना, कैसे दीवार घङी ,घन्टे रही बजाती,
रात खत्म हुई, इससे पहले कि मैं लिखना बन्द कर पाती

बताना, कैसे मैंने ,तुम्हे डराया समझाया
नहीं तो, तुम सबसे मेरी चुगली कर जाती

बताना, कैसे मेरे अधरों ने, तुम्हे छू लिया ,
इससे पहले कि मैं तुम्हे लिफाफे मेँ डाल पाती

बताना, कैसे लिखने को कितना कुछ याद आता रहा रात भर,
इससे पहले कि सुबह हो और तुम डाक-बक्सें में जा पाती

बताना, बहुत कुछ बचा है, अभी कहने को,
काश! तुम उन्हें सब समझा पाती

तुम जा रही हो, उनके पास ,
प्रिय पाती !
बताना, उनको वो बातें ,जो मैं नही बताती

Wednesday, May 19, 2010

निराले रंग


रंग भी बहुरूपिये से रंग बदलते हैं,
कभी चटख, कभी बदरंग लगते है

पुरानी किताब की नयी ज़िल्द में,
बन-ठन कर कितना इतराते हैं

माँ की सन्दूक की साडियों में,
तहों के बीच फीके से लगते हैं

पन्ना दर पन्ना अखबार में,
खबरों में बिन-बात ही उलझते हैं

बारिश में धुल गयी दीवारों में,
चौबारे के साथ गीत गुनगुनाते हैं

दरवाज़ों पर उग आये कुकुरमुत्तों में,
मुण्डेर की काई से कोने में झगडते हैं

नुक्कड की बूढी दादी के सिंगार में,
माथे की कुमकुम बन चमकते हैं

यादों की चादर में लगे नये पैबंद में,
मूक रह कर भी कहानी गढते हैं

रंग भी बहुरूपिये से रंग बदलते हैं,
कभी चटख, कभी बदरंग लगते है

Monday, May 17, 2010

बादल! तुम आना पर ..........


अरे बादल, तुम आना
चाहे घनघोर घटा को साथ लाना
चाहे मूसलाधार बरस जाना
चाहे सारे ताल, नदियों को फिर भर जाना
चाहे आँगन की रंगोली के रंग बहा ले जाना ,
चाहे मुन्ने की कागज़ की नाव को दूर ले जाना,
चाहे छत पर सूखे कपड़ों को भी भिगो जाना
चाहे बरामदे में पड़ी अचार की बरनी में भर जाना
चाहे पेड़ों पर लदे कच्चे आमों को भी गिरा जाना
चाहे मुन्नी की गुड़िया की शादी के बीच में ही आ जाना


.....पर उस गरीब की झोपड़ी पर ज़रा धीरे से गिरना
उसकी छत कमज़ोर है...
टूट जायेगी