Tuesday, December 31, 2019

बीती हुई कलम से

पतंगें जो ऊँची  उड़ती हैं,
ओझल होने से पहले
टीस जाती हैं मन को

बिछड़े किसी की याद,
नम कर जाती हैं फिर से,
गुज़री किसी सिसकी को

घुमड़ के चल देती है रेलें
पटरियाँ बनी रहती हैं वहीँ ,
राह बताती उस आख़री डिब्बे को

कलम जो घिस जाती हैं,
अपने लिखे में फिर फिर पढ़ जाती हैं
भूली हुई अपनी जीवनी को

जुड़ कर ज़मीं से, जमें रहते हैं मील के पत्थर
ढीठ बन मुस्कराते, दिलासा देते हर डगर
ना मान हार, बस थोड़ा सा तो और है सफर

तुम पुरुष कहलाओगे




गर शीश उठा तुम चल सकते हो
जब माने दोषी प्रियजन भी
गर विश्वास स्वयं  पर कर सकते हो
जब  छाया हो चहुँ ओर गहन अँधेरा ही
गर हो संयम करने का प्रतीक्षा भोर की
गर हो सम्बल लड़ने का गहन तिमिर से,
गर हो इच्छा द्वेष को, प्रेम के आलिंगन में भरने की
गर शब्दों से नहीं, कर्मों से ला पाओ तुम परिवर्तन
गर देख सकते हो तुम स्वप्न निर्माण के,
गर रख सकते हो जय- पराजय को तुला के बराबर पलड़ों पर 
गर सत्य बदलता नहीं  तुम्हारा दिशा बदलने पर हवा की
गर है शुचिता भूल स्वीकारने की तुममें ,
गर है साधुता भूल सुधारने की तुममें ,
गर हो तत्पर  गिरते को उठाने के लिए 
गर सफलता करे नमन तुम्हारा, पर तुम रहो नतमस्तक ही

तब सही अर्थों में सफल तुम हो पाओगे
तब सही अर्थों में पुत्र, तुम पुरुष कहलाओगे

Friday, December 27, 2019

सुबह दिसंबर की



एक गरम अदरक वाली चाय ,
माँ के बने दस्ताने में थमी हुई 
खिड़की से झाँकता, मुस्कुराता ढीठ सा ठूँठ,
रुई के फ़ाहों से हारा, कातर नींबूई सूरज
दिसंबर की सुबहें, अलार्म से चौंककर 
ऐसे ही धीमे से शुरू होती हैं 

पर फिर ओवरकोट पहन निकल पड़ती हैं,
अदरक वाली चाय को दस्तानों में थामे ही,
सूरज की हिम्मत बढ़ाने,
रुई के फाहों को हराने और
मुस्कुराते ठूँठ को कहने कि 
 जानी! तुम ऐसे भी बहुत क्यूट लगते हो