Tuesday, May 10, 2016

चल रे मन !


चल रे मन 
बतिया ले खुद से ,
मत डर ,
दुनिया के डर  से । 

घबराए, धमकाए 
अँधेरा जब ,
निराशा भर कर,
 संग लाये जब ,
पलट कर, घूम कर ,
धकिया दे उसको ,
गहरी साँस खींच कर भीतर ,
फूँक मार उड़ा दे उसको । 
चल रे मन 
बतिया ले खुद से ,
मत डर ,
दुनिया के डर  से । 

अकेलापन जब घर कर जाए  तुझमे ,
खुद को खुद का साथी बना ले तब  तू ,
घूमती नदियों, ऊँचे पहाड़ों की कहानी सुना ले तब तू ,
बंद कर आँखें ,
सारी दुनिया खुद को खुद से घुमा ले तब तू । 
चल रे मन
बतिया ले खुद से ,
मत डर ,
दुनिया के डर  से । 

बिखरा हो जब आस का तिनका तिनका ,
ना पता हो रात का , ना दिन का ,
समेट कर टुकड़े  तब सब तू ,
जोड़ कर बना नीड़ हिम्मत का तू ,
खुद को खुद की सीढ़ी बना रे तब तू ,
चल रे मन
 बतिया ले खुद से ,
मत डर ,
दुनिया के डर  से । 

राह बंद हो ,
रुकी डगर हो 
पगडण्डी को साथी बना ले तब तू 
बीन कर राह से कंकड़ों को ,
दिशावान सूरज बन जा रे तब तू 
चल रे मन
 बतिया ले खुद से ,
मत डर ,
दुनिया के डर  से । 

रेगिस्तान सा तपता हो जब,
मृगतृष्णा में  भटका हो जब,
थक कर बैठ मत जा रे तब तू ,
कुआँ अपना खोद कर दिखा रे तब तू  ,
मीठा पानी  बन जा रे तब तू । 
चल रे मन
 बतिया ले खुद से ,
मत डर ,
दुनिया के डर  से । 

चोट खा हार मत मान  जा रे तू ,
सोने सा पिघल मत जा रे  तू ,
पहचान खुद को झाँक कर भीतर ,
तू लोहा है ,
लोहे सा डट जा रे  अब तू । 
तू लोहा है ,
लोहे सा डट जा रे  अब तू । 

Thursday, April 7, 2016

भूख

कहीं गोद में कहीं  उंगली थामे खड़ी होती है
हाथ फैलाये बेबसी में बड़ी होती है ,
भूख स्कूलों -मदरसों के पाठ  से बड़ी होती है |

खाली बर्तन, ठन्डे चूल्हों में रखी होती है
टपकती छतों और खाँसती दीवारों  में पली होती है ,
भूख अकेलेपन  के  साथ सदा जुड़ी होती है ।

नाकामियों से नाउम्मीदियों में ,
नाउम्मीदियों से नाराज़गियों में तब्दील हुई होती है ,
आग उगलती भूख इंसानी जज़्बों से बड़ी होती है ।

अँधेरा बुझा स्ट्रीट -लैम्प की रोशनी में पढ़ी  होती है ,
बिना चाँद वाली रात पर उगते सूरज के हस्ताक्षर कर रही होती है ,
सफलता की भूख, दुश्वारियां ख़त्म करने की ज़िद पर अड़ी होती है |

घर- परिवार, प्यार-दोस्त यार से दूर,
बड़े शहरों की तंग फुटपाथों पर बेघर पडी होती है ,
भूख सर पर प्यार की छत से बड़ी होती है |

पैबन्दों में सिल -सिल फिर ज़ार -ज़ार घिसी होती है,
मिट्टी के दाम सरे-आम बाज़ार में बार-बार बिकी होती है ,
थिरकती नाचती भूख मान-सम्मान के दस्तूरों से बड़ी होती है |

फाकों से खाकों तक साथ चली होती है ,
मज़हब छुपा कभी मंदिर के प्रसाद में, कभी इफ़्तारी में शरीक हुई होती है ,
भूख राम -रहीम की पहचान से बड़ी होती है ।

सूखे और बाढ़ की साथी होती है ,
क़र्ज़ और परज़ के साथ ताल मिलाती चलती है ,
भूख किसानों के गले में फंदे सी कसी होती है |

भटकाने को कभी, भड़काने को कभी ,
मासूमों के खून से हाथ रंगे होती है
सत्ता की भूख मक्कारियों से भरी होती है ।

तिजोरियों में कभी,
स्विस बैंकों में भरी होती है,
पर भरे पेट वालों की भूख उसूलों से बड़ी होती है ।