Friday, September 19, 2008

नीङ के पंछी



कुछ तिनके दबाकर चोंच में,

दो पेङों के दो नीङों से,

उङे थे पंछी दो,



दो पंछी छोङ चले,

दो पेङों के नीङ दो|


दो पंछी छोङ चले,

दो पेङों के दो नीङों में,

राह तकती आँखें दो और दो|



हवा से बतियाते,

बादल पर झुँझलाते,

दूर निकल आये नीङों से,

दो नीङों के पंछी दो|



नयी ज़मीं पर,

नया पेङ ढूँढ,

दो पेङों के दो नीङों के तिनकों से

एक नीङ बनाने लगे,

वो पंछी दो|



कहीं दूर

तकती रही राह्

दो पेङों के दो नीङों में,

बूढी आँखें दो और दो|


Wednesday, September 17, 2008

नन्ही सी छाँव


सुलझी कभी, कभी अनसुलझी पहेली बन जाता है,
जब मुट्ठी खोल कर यों ही बंद कर जाता है|

कानों में काँच की चूङी सा खनक जाता है,
जब बिन बात यों ही तू खिलखिलाता है|

कोठरी के रोशनदान सा चमक जाता है,
जब झप से झप-झप आँखें झपकाता है|

बचपन के मायने दीवारों पर समझाता है,
जब हथेलियों से उन पर निशान बनाता है|

दिन भर लुका-छिपी का खेल दोहराता है,
जब पर्दे के पीछे अनजाने ही छुप जाता है|

मिट्टी और पौधे का रिश्ता बन जाता है,
जब आकर गोद में मेरी तू सो जाता है|

कङी धूप में नन्ही सी छाँव सा बन जाता है,
जब बिन बोले ही तू मुझको माँ कह जाता है|