Wednesday, November 24, 2010

बेचारा चाँद !


आँखों के नीचे काले घेरे लिए,
लो आज फिर उग गया है चाँद
कल रात की थकन उतरी नहीं,
देखो आज फिर काम पर लग गया है चाँद
उजले दिन पर स्याह दवात उलट,
...जब सूरज बेफिक्री की नींद सो गया,
रात को रोशन रखने को,
चाँदनी ओढ़े झूठ-मूठ मुस्कुरा रहा है चाँद
बिखरी मुहब्बत के टूटे टुकडो को
महखाने की राह दिखाए जा रहा है चाँद
जाने कितने ख़्वाबों का गवाह बना,सदियों से,
और टूटे ख्वाबों की चुभन जिये जा रहा है चाँद

Thursday, September 30, 2010


एक माँ के दो पूत,
एक पिता की वो संतान,
फिर क्यों एक हिन्दू कहलाया,
और एक मुसलमान

बरसों एक थाली से खाया,
बरसों एक गीत गुनगुनाया
बरसों एक आँगन में पले बढ़े,
जिसमें कभी गले मिले, कभी झगड़े

आज आँगन वो बँट गया,
अल्लाह-राम की राजनीति में फँस गया
एक पिता को नाम देकर दो ,
दो घरों में बिठाया क्यों ?
उनमें बैठा पिता अब रोये,
क्यों भाई पड़ोसी होए,
दोनों आँगन के कण-कण में वो,
फिर हाकिम सेBold पूछो
नाम देने की ज़रुरत क्यों ?

Wednesday, August 4, 2010

काश! ये काश ना होता !


बादलों की जुल्फों को,
बारिशों की चोटियों में बांधकर,
जो आसमां ने ज़मीं को छुआ,
महक उठी , चहक उठी वो
हरा दामन फैला फिर बोली
मौसमी ही सही, पर ये छुअन अनूठी है,
काश !
इन चोटियों को थामे तुझ तक पँहुच पाती
काश!
ये काश बीच में ना होता

Tuesday, July 20, 2010

गुब्बारे सी हँसी


दबी सी सहमी सी रही कभी,
पेट में ही फुदकती रही कभी,
उछल कर कभी गले तक आयी,
भरसक कोशिश कर जो हमने दबायी,
चौकड़ी डाले फिर भी वहीं विराजित पायी
रुकी ना फिर, गुब्बारे सी फूटी ,
देखो ये आयी, वो आयी ,
इस बार हँसी रोके ना रुक पायी

Sunday, May 23, 2010

मीठा एहसास


खिङकियो के जंगले पर,

हौले से इधर -उधर झाँकती है

मेरे आँगन की चटाई पर बैठ ,

मेरा हाथ बँटाती है

बरामदे की क्यारियों में,

चुपके से फूलों से बाते कर जाती है

घर के दरवाजों पर चढ- चढ,

आङी- तिरछी सूरत बनाती है

कोने में रखी सुराही से,

सारा पानी पी जाती है

मेरे गीले बालों में रुकी बून्दों को,

चोरी से साथ ले जाती है

पङोसियों की कनखियों का,

जब-तब आसरा बन जाती है

तितलियों की अठखेलियों को,

नयी दिशा दे जाती है

ताज़ा धान की पूलियों को,

भीनी-भीनी खुशबू दे जाती है

ईख के खेतों से गुज़र कर,

गुङ की मिठास साथ लाती है

कपास के सफेद फूलों को ,

इठलाता रंग दे जाती है

सरसों की फसल के बीच से,

पीले कपङे पहन कर आती है

मटर के हरे दानों से,

ताज़गी का सिंगार कर आती है

साँझ ढले चिङियों से,लौटते हुए ,

जाने क्या कह जाती है

मेरे उदास गालों को,

कभी-कभी प्यार से सहला जाती है

हाँ! जाङे की धूप किसी अपने के,

प्यार भरे आलिंगन का

मीठा एहसास दे जाती है

प्रिय पाती !


तुम जा रही हो ,उनके पास ,
प्रिय पाती !
बताना ,उनको वो बातें ,जो मैं नही बताती

बताना, कैसे शब्दों को पिरोया है मैंने, भावों में,
वाक्य-रचना नहीं मुझे आती

बताना, कैसे अभ्यास नहीं, मुझे लिखने का ,
इसलिए शब्दों को रही घुमाती

बताना, कैसे मेरी उँगलियाँ चलती रही ,रात भर,
उनके एह्सास से ,मेरी सारी थकन रही जाती

बताना, कैसे स्वप्न देते रहे दस्तक ,
और मैं उन्हें , मीठी झिङकी दे सुलाती

बताना, कैसे दीवार घङी ,घन्टे रही बजाती,
रात खत्म हुई, इससे पहले कि मैं लिखना बन्द कर पाती

बताना, कैसे मैंने ,तुम्हे डराया समझाया
नहीं तो, तुम सबसे मेरी चुगली कर जाती

बताना, कैसे मेरे अधरों ने, तुम्हे छू लिया ,
इससे पहले कि मैं तुम्हे लिफाफे मेँ डाल पाती

बताना, कैसे लिखने को कितना कुछ याद आता रहा रात भर,
इससे पहले कि सुबह हो और तुम डाक-बक्सें में जा पाती

बताना, बहुत कुछ बचा है, अभी कहने को,
काश! तुम उन्हें सब समझा पाती

तुम जा रही हो, उनके पास ,
प्रिय पाती !
बताना, उनको वो बातें ,जो मैं नही बताती

Wednesday, May 19, 2010

निराले रंग


रंग भी बहुरूपिये से रंग बदलते हैं,
कभी चटख, कभी बदरंग लगते है

पुरानी किताब की नयी ज़िल्द में,
बन-ठन कर कितना इतराते हैं

माँ की सन्दूक की साडियों में,
तहों के बीच फीके से लगते हैं

पन्ना दर पन्ना अखबार में,
खबरों में बिन-बात ही उलझते हैं

बारिश में धुल गयी दीवारों में,
चौबारे के साथ गीत गुनगुनाते हैं

दरवाज़ों पर उग आये कुकुरमुत्तों में,
मुण्डेर की काई से कोने में झगडते हैं

नुक्कड की बूढी दादी के सिंगार में,
माथे की कुमकुम बन चमकते हैं

यादों की चादर में लगे नये पैबंद में,
मूक रह कर भी कहानी गढते हैं

रंग भी बहुरूपिये से रंग बदलते हैं,
कभी चटख, कभी बदरंग लगते है

Monday, May 17, 2010

बादल! तुम आना पर ..........


अरे बादल, तुम आना
चाहे घनघोर घटा को साथ लाना
चाहे मूसलाधार बरस जाना
चाहे सारे ताल, नदियों को फिर भर जाना
चाहे आँगन की रंगोली के रंग बहा ले जाना ,
चाहे मुन्ने की कागज़ की नाव को दूर ले जाना,
चाहे छत पर सूखे कपड़ों को भी भिगो जाना
चाहे बरामदे में पड़ी अचार की बरनी में भर जाना
चाहे पेड़ों पर लदे कच्चे आमों को भी गिरा जाना
चाहे मुन्नी की गुड़िया की शादी के बीच में ही आ जाना


.....पर उस गरीब की झोपड़ी पर ज़रा धीरे से गिरना
उसकी छत कमज़ोर है...
टूट जायेगी