Wednesday, October 12, 2011

मेरी पहचान

उसने पहली बार पुकारा ,
इतने लोगों में सिर्फ मुझे |
उस एक शब्द ने,
पिघला दिया मेरे मन को,
बहुत से शब्द गढ़ रही थी वो,
पर उस शब्द पर उसने,
अथाह प्रेम की नक्काशी की है |
" मम्मा "
पहली बार छलका,
शब्द बन कर उसका प्यार

मैंने सहेज लिया है वो पल,
बड़ी होगी तो दिखाऊँगी उसे
कैसे एक शब्द में गढ़ दी उसने,
मेरी सबसे बड़ी पहचान |

Thursday, September 29, 2011

महँगाई रे महँगाई !



महँगाई रे महँगाई ,
जमी जमाने में जैसे ससुराल जमा जमाई |
सूर्पनखा जैसे क्यों तूने नाक कटाई ,
बार-बार भरे बाज़ार रोज़ गाली खाई |
दुर्योधन सी दुष्टता जाने कहाँ से लायी,
दीन की दरिद्रता पर दया तुझे ना आयी |
पूंजीपतियों की पूज्य बन उनकी पूंजी बढ़ाई,
चूल्हे की चिंगारी की चाह भी तूने कहीं मिटायी |
नेता ने नित्य नया नीतोपदेश दिया तेरे नाम पर,
जन- गण-मन ज़ुल्म की तेरे आठों प्रहर दे दुहाई |
तन्ख्वाह छोटी, मोटी ज़रुरत दिनोदिन और मुटियाई,
थैले में पैसे ले जाते तब जेब में राशन लाते भाई
पाई-पाई जोड़ी पर बचत जरा ना हो पायी,
फुर्र से फुर्र-फुर्र हुयी गाढ़े पसीने की कमाई |
कहीं मखमल पर सोने वालों को देती विदेशी रजाई ,
कहीं जाड़े में छीनती बेघर से सग्गड़ की गर्मायी |
कहीं भरे पेट का पेटा भर, घोटाले का चूरन लायी,
कहीं आसमान तले भूखे पेट ने सिकुड़कर रात बितायी |
महँगाई रे महँगाई, अपना जवाब किस चाणक्य को बता कर तू आयी |

Thursday, June 23, 2011

अम्मा क्यों नहीं वो बचपन वापस आता


अम्मा क्यों नहीं वो बचपन वापस आता ,
जब तेरी कचौड़ी बिन गिने खाता था
देसी घी पड़े साग को खा ,
मन को कोई डर ना सताता था,
तेरे हाथ के लड्डू की महक से ,
स्कूल से ही दौड़ा आता था
गोल गुलाबजामुन देख कढाई में
बाल मन बल्लियों उछल जाता था
अम्मा क्यों नहीं वो बचपन वापस आता ,
जब दिन चढ़े तक बेफिक्री से सोता था
भरी दोपहर में फिर खुले आसमान तले,
कंचे, गिल्ली-डंडा, चोर-सिपाही खेला करता था
अम्मा क्यों नहीं वो बचपन वापस आता ,
जब आम -अमरुद के बागों में नाचते कूदते ,
बिन चिंता के सारा दिन निकल जाता था
आज कचौड़ी मुंह चिढ़ाती सी डराती लगती है,
गुलाब-जामुन, लड्डू बचपन के रूठे दोस्त हुए,
आम के बाग़ , शहतूत के पेड़ किस्से-कहानी हुए,
कंचे, गिल्ली- डंडा बीते जन्म की बात हुई
अम्मा क्यों नहीं वो बचपन वापस आता
जब उडती पतंग सा मन निश्छल लहराता था
जब- घड़ी की टिक-टिक से चलती दिनचर्या में नहीं,
छोटी-छोटी खुशियों में जीवन-सार नज़र आता था

Tuesday, June 21, 2011

वो पलाश का पेड़




वो पलाश का पेड़,
अब बूढा हो चला है
देखा है कई बार ,
थकी सी दोपहर को ,
उसके तने से पीठ टिका,थकन मिटाते
पाया है कई बार,
कोमल पुष्पों का आलिंगन कर,
छाँव को उस पलाश के नीचे पसर जाते
वो पलाश का पेड़,
जो अब बूढा हो चला है -
गंगा नदी को आराध्य बना,
नित्य ही पुष्पांजलि दिया करता था
अल्हड़ता से कुसुमित हो,नटखट बालक सा,
उन्मुक्त भावों का सन्देश दिया करता था
नव-विवाहिता की पालकी पर, पुष्पवर्षा कर,
'सदा सुहागन रहो' का आशीर्वाद दिया करता था
फ़ाग के रंगों में घुलता,कभी पिसता,
त्यौहारों में हर चेहरे पर चहका करता था
बसंत ऋतु के आगमन पर प्रकृति पर,
चटख रंगों से हस्ताक्षर किया करता था
गहरे रंगों में अपनी कूची डुबा,
संध्या की ओढ़नी रंगा करता था
डाल-डाल पर नीड़ में कलोल से,
सांध्य-वंदना के समय गूंजा करता था
पुष्पों में ज्योति सा दैदीप्य लिये,
नित्य ही दीपदान किया करता था
जाड़ों में पात-विहीन हो ठूँठ सा हाथ जोड़े,
दैव्याभिशाप का पश्चाताप किया करता था
वो पलाश का पेड़,
जो अब बूढ़ा हो चला है,
इस वर्ष बसंत ऋतु पर हस्ताक्षर नहीं कर पायेगा,
प्रकृति और प्रगति के द्वंद्व में वो हार जायेगा

Tuesday, May 24, 2011

मेरी बेटी के लिए ......


अलंकारों को अलंकृत करती ,
तुझसे ही तो अलंकारों की परिभाषा है
मन-उपवन में सुमन सी खिली तू ,
तुझसे जीवन में कितनी अभिलाषा है
मेरी अपूर्णता को अपनी पूर्णता से पूर्ण करती ,
मेरे पुरातन स्वप्नों की तू नवीन गाथा है
अपनी किलकारी से घर आँगन भरती,
तुझसे ही जीवन सरगम का सा,नी, धा, पा है
मधु-सरिता सी चंचल हो बहती ,
तुझमें ही मेरे बचपन का खाका है
रागों में मेघों के मल्हार सी ,
वर्षा ऋतु की पहली फुहार सी ,
ओस की बूँद की मनुहार सी ,
मंदिर में नुपुर की झंकार सी ,
आनंद वृक्ष की नवीनतम पल्लवी सी ,
मान्या, तू स्वयं एक त्यौहार है
बेटी बन कर तेरा आगमन ,
मेरे वात्सल्य को पुनः अर्थ दे जाता है

Thursday, May 19, 2011

चवन्नी नहीं रही !




छम से छम- छम छमकती चवन्नी,
चम से चम -चम चमकती चवन्नी ,
अम्मा के बटुए की जान चवन्नी ,
मिट्टी की गुल्लक की शान चवन्नी ,
छोटू का गुब्बारा लाती चवन्नी ,
गोले की टॉफी की मिठास चवन्नी,
इमली की खटास चवन्नी ,
यहाँ वहाँ घूमती घुमक्कड़ चवन्नी,
बन्दर- बंदरिया का खेल दिखाती चवन्नी,
अटरिया के मेले की सैर कराती चवन्नी
भैया के बल्ले से घुमकती चवन्नी ,
दीदी की आँखों का काजल बनती चवन्नी ,
मंदिर में चढ़ावा चढी चवन्नी ,
छुट्टे करवाने को सब्जी मण्डी में लड़ी चवन्नी ,
नुक्कड़ के भिखारी की झोली में गिरी चवन्नी ,
दुआओं का भण्डार चवन्नी ,
आवारा सी ना ठहरती चवन्नी

गोलू के गले में कितनी बार फँसी चवन्नी
बड़ी मुसीबत थी उससे ,
..अच्छा है नहीं रही ,
.....पर थी तो बड़ी गोल- मटोल ,
चमकती भी थी कभी- कभी ,
अचानक कैसे चली गयी,
.................. museum में दिखेगी क्या ?