Friday, May 4, 2018

जाओ रे ज़ुकाम

नाक रगड़ कर,
कान पकड़ कर,
जाड़ा  जकड़  कर,
अकड़ -अकड़ कर ,
अकड़ गया है मरा ज़ुकाम ।

टप - टप ,टप- टप आँख टपकती
सूँ -सूँ ,सूँ- सूँ  नाक सुबकती ,
सीधी - सादी साँस अटकती ,
नींद बेचारी की रात को बंद है दुकान ।

गले का गलियारा हो गया है तंग,
बद-मिजाज़ मौसम से हार  कर जंग ,
नाक -निकम्मी का सुर्ख पड़ा है रंग ,
सिर सरकारी के भी अच्छे नहीं है ढंग ,

मुँह से साँस लेने का होठों को जुर्माना  पड़ा है ,
भूख का परदेस का वी.आई. पी वीज़ा लगा है,
ज़बान मरी नखरे दिखाती ,
ताज़े को भी बासी बताती ,
खाँस -खाँस कर आवाज़ ख़राशी ,
छींकें थकती नहीं करके फेफ़ड़ों की तलाशी

अदरक, तुलसी, चाय सब हुई नाकाम,
हाथ जोड़े ,नाक रगड़ी
बस करो जाओ रे ज़ुकाम!
बहुत कर लिया तुमने जीना हराम
छोड़ो पीछा बाँधो अपना सामान ।

आँख भर आकाश




आँख भर आकाश ले, पँखों पर रक्खी थी उड़ान
अब ना मीलों की गिनती, ना दूरियों का हिसाब रहा |
दिन दहकता सा उठता है और सो जाता है दहकते हुए
बेपरवाह से उस सूरज का अब जुगनुओं से नाता न रहा


वो जो धूप का कोना पकड़ कभी,
कभी बारिशों की भीगी लटें सुलझाता रहा,
सिरे जोड़ते हुए आसमाँ के ज़मीं से,
वो भोला सा बचपन बार- बार मुझे बुलाता रहा 


 
मसरूफ़ियत के समंदर ने कुछ यों हमें समा लिया,
के इस शहर के शहरीपन ने अब हमें अपना लिया
परवाज़ की दीवानगी का असर कुछ यों हुआ
के घोंसलों पर ठिकाना अब कभी-कभार ही रहा
 

के समँदर पा चुके हैं अब जो,
आँसूँ हमारे गिरते नहीं,
जो गिर जाए कभी इक आँसूँ भी तो,
वो हमें बे-इंतेहा खारा लगा 


 मंज़िल एक के बाद दूसरी का पता बताती गयी,
आगाज़ मेरा जाने कब बे-पता हो गया
रेत सा फिसला वक्त कुछ यों,
की मंज़िल पाने का तिलिस्म जाता ही रहा 


हर सुबह आईने में देख रोज़
नए मुखौटे बदल छुपाते फिरते हैं जिसे ,
उम्र लगा दी तमाम खीँचने में,

उसी  तजुर्बे को आँखों के आस -पास

खोये की गिनती करूँ,
या पाये का करूँ हिसाब |
दस्तख़त कर गया है गुज़रा वक्त,
वसीयत में कर गया है ढेरों यादें मेरे नाम 


चह-चहाते  परिंदों के झुण्ड पीछे छूटते गए,
तड़प तो थी पर इस बंजारेपन से कभी शिकवा ना रहा ,
 पर कहीं एक बहती नदी, पत्थर के उस पुल के पास,
एक भूला सा घर हर रात ख़्वाब में आवाज़ दे  बुलाता रहा