Wednesday, October 4, 2017

ओ री साड़ी !



तू बीत चुके पुरातन युग की ,
तू नए समय के साथ समकालीन भी,
तू पुराने चलन के साथ चलने वाली,
ओ री साड़ी!
तू नयी रीत का परचम लहराने वाली भी |

तेरे विस्तार में खुला आकाश
तू बँध जाए तो  समेटे है रहस्य अपार
तू बंधनों में बँध शर्माने -सकुचाने वाली,
ओ री साड़ी!
तू रिवाज़ों, समाजों में रसूख वाली भी |

तू सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद,
तेरे आँचल में बसी माँ की याद
तू प्रिया की नटखट सी मनुहार
ओ री साड़ी!
तू प्रिय का अमोल सा उपहार |

कहीं पैठानी करघों पर करती लयमयी लावणी
कभी मीनाक्षी  मंदिर में देवी पर सज हुई पावनी
तू फुलकारी सी सुन्दर, तू कांजीवरम सी रेशमी,
ओ री साड़ी!
 बनारसी बुनकारी से हुई तू गंगा सी भाविनी |


तू  सूती सी सौम्य, सुशील, सादी,
तू खादी सी खड़ी स्वतंत्रतावादी
तू झिलमिल झीनी, मनचलों को मचला आती 
तू मलमली मनमानी, लापरवाह फिसलती जाती 
ओ री साड़ी!
तू छः गज की गज़ब गजगामिनी सी
ओ री साड़ी!
तू छः गज की गज़ब गजगामिनी सी |