प्रेम!
मैं मानती हूँ, कि मैं तुम्हें तबसे जानती हूँ
जब मुझे ऋतुओं का अंतर समझ आया था,
जब मुझे समझ आया था कि
बसंत आना, प्रेम की प्रत्यक्ष पुनरावृत्ति है|
परोक्ष में तो प्रेम कह रहा था निरंतर अपनी कहानी,
पतझड़ में भी, पतझड़ के बाद भी,
जब बहा ले गयी थी ठंडी, तीखी बयार
स्वप्न-पत्रों को, रंगों को,
मुझे तब तुम कठोर लगे थे, और तुम्हारे होने पर संशय था,
पर तुम वहीं थे, नयी कोंपलों के लिए ऊर्जा संजोते हुए
नए फूलों के लिए रंग चुनते हुए,
सर्द मौसमों में अपनी बड़ी- बड़ी हथेलियों में,
स्वप्न संजोते हुए |
प्रेम!
तुम्हारे बसन्ती रंग बहुत पक्के हैं इस बार |
प्रेम!
सावन में मल्हार जब गाया जाए ,
तुम हो सके तो खूब बरसना इस बार|
No comments:
Post a Comment