Friday, August 10, 2007

किरणों की लेखनी से


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

किरणों की लेखनी चला,

लिख देता है, रोज़ दिन नया दिवाकर,

सागर की चंचल लहरों पर

सुनहरी रोशनाई से अलंकृत कर,

लहरों के अल्हङ शैशव को,

तरुणाई की सीमा-पार ले जाता है

दिखलाता है दिन नया,

सुनहरे अम्बर का दर्पण,

और जाते हुए, दे जाता है,

ऊर्जा किनारों पर चोट करने की...

ऊर्जा अपने अस्तित्व को पाने की...

Tuesday, July 31, 2007

थोङी और हरियाली


एक क्यारी में कच्ची सी,
एक पौधा लगा दिया है

जो पावस की बूँदों को,
नन्हीं पत्तियों में समेटता है

झोंकों से हवाओँ के,
लङता कभी, कभी झगङता है

किरणों की पीली छटा में,
अलसाता कभी, कभी निखरता है

ताल को बारिश की,
राग मल्हार समझ थिरकता है

दरारों में मिट्टी की,
अपने भावी आकार बुनता है

पर भूरी उदासी को मिटाने को,
थोङी और हरियाली के स्वप्न रचता है

लम्हे

लम्हों को सज़ाकर,
करीने से तह कर दिया है,
शायद माँ के कमरे में,
कोई बक्सा हो, इन्हें छुपाने के लिये
पर जानती हूँ जब भी बन्द करती हूँ इन्हें,
किसी सन्दूक या बक्से में,
दीवार पर टँग जाते हैं ये,
आढे- तिरछे आकार लिये,
पुराने दस्तूर की खूँटी की तरह

Thursday, April 19, 2007

कभी किसी बिछङे से पूछो


कभी किसी बिछङे से पूछो,
कैसे घर की याद सताती है

बारिश में सौन्धी हुई मिट्टी,
मन भीतर तक गीला कर जाती है

तस्वीरों में जो बचपन थोङा बाकी है,
यादें उसकी अब भी गुदगुदाती हैं

बाज़ार में सजी कोई फुलकारी,
दूर अपने देस ले जाती है

कभी किसी बिछङे से पूछो,
कैसे घर की याद सताती है

खुशियाँ दिलासा देने जब,
कभी-कभार दस्तक दे जाती हैं,

दादी-काकी, मामी - नानी,
कहाँ बलाएँ लेने आती हैं

धुन हर गीत की पुराने,
गली के नुक्कङ तक पँहुचाती है

कभी किसी बिछङे से पूछो,
कैसे घर की याद सताती है

महकता हुआ रजनीगँधा हर,
घर के आँगन में ले चलता है

पर दीवाली का दीया भी यहाँ,
सप्ताहांत को तरसता है

लौटेगा तू कब घर अपने,
मन बार-बार ये प्रश्न करता है

कभी किसी बिछङे से पूछो,
कैसे घर की याद सताती है

अजनबी देस में, यहाँ- वहाँ,
रिश्तों की तलाश की जाती है

जाने खुद से ये आँख-मिचौली,
अभी कितने बरस बाकी है

पहचान कहीं गुम गयी है, ये गुत्थी
क्या खोया, क्या पाया सुलझ नहीं पाती है

कभी किसी बिछङे से पूछो,
कैसे घर की याद सताती है

बारिश में सौन्धी हुई मिट्टी,
मन भीतर तक गीला कर जाती है