Tuesday, October 22, 2013

ओ रे करवाचौथ के चाँद !



टाँक कर अपने दुशाले पर अनगिन तारे ,
देर ना करना , जल्दी आना ,
तुम आज ओ चाँद !
इतरा लेना पर जल्दी आना ओ चाँद !

 
 देखो तो मैंने भी सजाये हैं ,
 अनगिन तारे
अपनी पूजा की थाल में ,
प्रार्थना के , मनुहार के ,
विश्वास के ,अधिकार के,
और प्रिय के लिए असीम प्यार के |
   

                  

Tuesday, October 8, 2013

ज़िद्दी जुगनू या पँखों वाले दीप





उस रात जब चाँद नदारद था,
शायद मावस की छुट्टी मना रहा था ,
और तारे-सितारे ऊँघ रहे थे गहरी नींद में ,
तब ओढ़कर लिहाफ अँधियारे आसमान का ,
झुरमुटे से चल पड़ी थी एक  जगमगाती पलटन ,
गहराईयों  से ऊँचाइयों को उठती ,
पँखो पर झपझपाती  रोशनी  बिठा ,
जन-जन के मन को सम्मोहित करती ,
समय की परतें  उधेड़ ,यादों को झिंझोड़ती,
उस बचपन को झकझोर कर  बुलाती ,
जब जुगनू जगमगा जाते थे मुस्कान चेहरे पर,
जब हथेली के बीच कैद किया करने से ,
पँखों वाली उस उड़ती रोशनी को ,
सपनों  को पतँग सी ढील मिला करती थी ,
और तारे तोड़ लाने सी खुशी हुआ करती थी ,

पर उँगलियों की सलाखों वाले ,
कोमल हथेलियों के उस पिंजरे में ,
जुगनू बुझ जाया करते थे ,
शायद ऊर्जा संचयन करने के लिए
या बस ज़िद्दी हो ज़िद पर अड़ जाया करते थे 
और ना जगमगाने की उनकी  हठ से हार 
लौटा दिया जाता था उन्हें अँधियारा आसमान,
उड़ान का उल्लास वापस पा,  
वो जुगनू जगमगाते थे, टिमटिमाते थे,
चँचल चाँदनी के जैसे चमचमाते थे,
पँखों वाले दीप बन, अमावस का उत्सव मनाते थे |

Thursday, September 5, 2013

तमसो मा ज्योतिर्गमय !


चुप्पियों के पीछे छुपे,
शब्द बीनने हैं  ,
जैसे बीना जाता है,
एकदम धवल चावलों के बीच ,
 परात में धान .

लापरवाह उँगलियाँ चूक जाएँ तो,
फिर ओझल हो  जाता है ये धान,
 ओट में चावलों की ,
और संख्या का गणित लगा,
खेलते हैं चावल एकतरफा लुका-छिपी 

पर फिर भी ,
ऐनक पहनकर दूरदर्शिता की ,
ढूँढने हैं शब्द ,
जो बन सकें हथियार 
परिवर्तन का,

बीनना है ऐसा धान,
जो बन सकें समिधा ,
भ्रष्टाचार के हवन की ,
जो बन सके किरकिरी ,
मुनाफाखोरों की खीर की ,

जो बन सके अक्षत ,
प्रगति और नवनिर्माण का |
जो कर सके शब्द 
कलुषित नीति और राजनीति पर,
जो अर्घ दे 
सत्य के सूरज को |

इसलिए
तोलना है हर चावल को उँगलियों पर  ,
और भ्रष्टाचार से खोखले और थोथों की भीड़ में ,
दुर्लभ हो चुके धवल को चुनना है, 

जिससे हम आश्वस्त हो कह सकें ,
तमसो मा ज्योतिर्गमय !
तमसो मा ज्योतिर्गमय !


Tuesday, April 23, 2013

ख्वाहिशों वाली मशीन


ख्वाहिशों वाली मशीन
जाने कहाँ से बनवाता है ऊपरवाला,
कल-पुर्जे चुकते नहीं उसके,
और बैट्री चलती रहती है लगातार ,   
बिना रुके , बिना वियर एंड टियर के    
एक के बाद एक दागती है ये, 
नयी ख़्वाहिशें,और हर नयी को 
झोली में डाल, दौड़ती-फिरती है ज़िन्दगी ,

नापती हुई सुबह से शाम तक  का सफ़र |


और हम नींद में , जाग में,
घूमते हैं चकरघिन्नी से,
पीछॆ इन ख्वाहिशों के   ,
फिर पूरी हुयी ख्वाहिश को
 बुरी नजर से बचाने का नज़रबट्टू लगा,
 दौड़ते हैं नयी के पीछॆ |

वैसे तो ये जो ख्वाहिशों वाली मशीन है,

बिना ई. एम. आइ के आती है|
 पर हुँह ! कुछ चीज़ें मुफ्त आयें ,
तब भी महँगी ही पड़ती हैं |   
और ये तो कुछ ज्यादा ही महँगी पड़ी|