उस रोज़ जब पहली बार मिले थे तुम ,
बाग़ ही में से एक गुड़हल तोड़कर दिया था तुमने मुझे ,
घुँघरुओं वाली बंधेज की चूनर पहने ,
मैं इतरा के चल दी थी,
तुम रुक रुक के, झुक-झुक के ,
जाने क्या ढूँढा करते थे
और मैं तुमको हैरानी से,
मुड़ -मुड़ के देखा करती थी |
हाँ बोलूँ या ना बोलूँ,
असमंजस में इस पहेली को बूझा करती थी |
आज सालगिरह पर तुमने,
बंधेज की चूनर से गिरे सारे घुंघरू
रेशम की डोर में पिरो, पहना दिए हैं मुझे
मैं तब असमंजस में थी,
अब प्रेम में हूँ ,
तुम तब भी प्रेम में थे, अब भी प्रेम में हो
असमंजस की बिखरी पहेलियों को
पिरो दिया है तुमने प्रेम की डोर से अपनी |
रेशम की डोर में घुँघरू सुर और ताल मिलाते हैं अब
जब मिल कर हम रुक-रुक के, झुक -झुक के
और कभी मुड़ -मुड़ के हर बिखरी पहेली को बूझा करते हैं |
पहेलियाँ जीवन संगीत से सुर-ताल मिलाती चलती हैं
और इस संगीत के प्रेम में तुम भी हो और मैं भी हूँ
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