फुलकारी
Wednesday, August 4, 2010
काश! ये काश ना होता !
बादलों की जुल्फों को,
बारिशों की चोटियों में बांधकर,
जो आसमां ने ज़मीं को छुआ,
महक उठी , चहक उठी वो
हरा दामन फैला फिर बोली
मौसमी ही सही, पर ये छुअन अनूठी है,
काश !
इन चोटियों को थामे तुझ तक पँहुच पाती
काश!
ये काश बीच में ना होता
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