जब तुम पास थे,
सारा आकाश मुझमे ही था ,
बस हाथ फैला देती थी,
जब उड़ने का मन करता था |
रंग भी सब मुझ में ही थे ,
जब चाहे ब्रश डुबा के उनमे,
आस- पास रंग भर देती थी
हरा, लाल, नीला-पीला, धानी
अब तुम नहीं हो तो,
हाथ फैलाने से मन उड़ता नहीं इसलिए
अपनी पहचान का आकाश बना रही हूँ ,
और नये रंग खोज रही हूँ ,
एक मिला है आत्म -विश्वास का,
बाकी सब रंग उसी से बन जायेंगे ,
पहले से चटक और एकदम पक्के |
4 comments:
बहुत बढ़िया
lajwaab
बहुत सुन्दर रचना ..बधाई !
आशु (http://dayinsiliconvalley.blogspot.com/)
bahut hi achhi rachna hai...bahut khoob :)
Post a Comment