Monday, November 9, 2009

नये रंग


जब तुम पास थे,
सारा आकाश मुझमे ही था ,
बस हाथ फैला देती थी,
जब उड़ने का मन करता था |

रंग भी सब मुझ में ही थे ,
जब चाहे ब्रश डुबा के उनमे,
आस- पास रंग भर देती थी
हरा, लाल, नीला-पीला, धानी

अब तुम नहीं हो तो,
हाथ फैलाने से मन उड़ता नहीं इसलिए
अपनी पहचान का आकाश बना रही हूँ ,

और नये रंग खोज रही हूँ ,
एक मिला है आत्म -विश्वास का,
बाकी सब रंग उसी से बन जायेंगे ,
पहले से चटक और एकदम पक्के |

4 comments:

Ashish (Ashu) said...

बहुत बढ़िया

संजय भास्‍कर said...

lajwaab

आशु said...

बहुत सुन्दर रचना ..बधाई !

आशु (http://dayinsiliconvalley.blogspot.com/)

abhi said...

bahut hi achhi rachna hai...bahut khoob :)