पेशानी पर सूरज सजा ,
देखो खिल गया हरसिंगार
रंग-ओ-ख़ुशबुओं से इतराए
मुस्कुराए तो हरदिल गुलज़ार
पेशानी पर सूरज सजा ,
देखो खिल गया हरसिंगार
रंग-ओ-ख़ुशबुओं से इतराए
मुस्कुराए तो हरदिल गुलज़ार
आसां इतना भी नहीं है इस मर्ज़ से शफा पाना
ना ये वो मर्ज़ है जो बस इक बार होता है
ना ये वो नासमझी है जो समझदारों से नहीं होती
ये जो मोहब्बत है ना बस हो जाती है
आग़ाज़ ख़्वाबों का हुआ बहुत से
पँख फड़फड़ाये उड़ने को पहली बार
विदा करती गीली आँखें देर तक
दुआ में हाथ उठाती रही बार-बार
ख़्वाबीदा से उस मक़ाम को पा गए
पर उम्मीदें हम से मुसलसल बनी रहीं
संग-तराशी खुद की इस इंतहा तक की हमने
कि मुस्कान इस बुत की अब हमसे मिलती नहीं
सोने लगे हैं अब हम ज़रा ज़्यादा
के खुली हो आँखें तो मिलते नहीं अब तुम
जो बंद कर लूँ, तो ख़्वाबों में बस तुम्हारा ही रैन-बसेरा
नज़र भर देखना तुम्हारा,
या उसी नज़र का ठहर जाना,
कनखियों से देखना तुम्हारा ,
पल भर को नजरें मिलाना
और चोरी पकड़ी गयी हो जैसे, ऐसे मुस्कुराना
बस श्रृंगार का मेरे इतना सा ठिकाना
मुझसे सारी दुनिया तुम्हारी, तुमसे मेरा सारा ज़माना..
एक दौर वो भी था ,
जब खयालों का ठिकाना बस चेहरा तेरा ही था
और इक दौर ये भी है के हज़ार कोशिश करने पर भी सूरत तेरी याद आती नहीं
तू आम है, पर आम नही
हर मौसम की तू शाम नहीं
कभी खट्टा, कभी मीठा सा,
पहले प्यार में लिखे गीत सा
गालों पर तेरे ये जो शोख़ी है
मिठास में तेरी, ये जो मदहोशी है
तेरे केसरी कतरों से, तेरे नाज़ुक नखरों से
तेरे सिंदूरी हो जाने से
तेरे मलीहाबाद और बनारस से चले आने से
गर्मियों की सुबहें, गर्मियों की शामें यादगार हैं
ओ रे आम तू आम रहे
तेरे बाग़ तेरे बग़ीचे
तेरी नस्लें तेरी फसलें गुलज़ार रहें
के तू आम है
पर आम नहीं
और सुन भाई आम
तू ख़ास रहे पर आम रहे!