चुप्पियों के पीछे छुपे,
शब्द बीनने हैं ,
जैसे बीना जाता है,
एकदम धवल चावलों के बीच ,
परात में धान .
लापरवाह उँगलियाँ चूक जाएँ तो,
फिर ओझल हो जाता है ये धान,
ओट में चावलों की ,
और संख्या का गणित लगा,
खेलते हैं चावल एकतरफा लुका-छिपी
पर फिर भी ,
ऐनक पहनकर दूरदर्शिता की ,
ढूँढने हैं शब्द ,
जो बन सकें हथियार
परिवर्तन का,
बीनना है ऐसा धान,
जो बन सकें समिधा ,
भ्रष्टाचार के हवन की ,
जो बन सके किरकिरी ,
मुनाफाखोरों की खीर की ,
जो बन सके अक्षत ,
प्रगति और नवनिर्माण का |
जो कर सके शब्द
कलुषित नीति और राजनीति पर,
जो अर्घ दे
सत्य के सूरज को |
इसलिए
तोलना है हर चावल को उँगलियों पर ,
और भ्रष्टाचार से खोखले और थोथों की भीड़ में ,
दुर्लभ हो चुके धवल को चुनना है,
जिससे हम आश्वस्त हो कह सकें ,
तमसो मा ज्योतिर्गमय !
तमसो मा ज्योतिर्गमय !
3 comments:
बहुत अच्छी रचना !
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मेरी फुलकारी पर आने और उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद!
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