ख्वाहिशों वाली मशीन
जाने कहाँ से बनवाता है ऊपरवाला,
कल-पुर्जे चुकते नहीं उसके,
और बैट्री चलती रहती है लगातार ,
बिना रुके , बिना वियर एंड टियर के
एक के बाद एक दागती है ये,
नयी ख़्वाहिशें,और हर नयी को
झोली में डाल, दौड़ती-फिरती है ज़िन्दगी ,
नापती हुई सुबह से शाम तक का सफ़र |
और हम नींद में , जाग में,
घूमते हैं चकरघिन्नी से,
पीछॆ इन ख्वाहिशों के ,
फिर पूरी हुयी ख्वाहिश को
बुरी नजर से बचाने का नज़रबट्टू लगा,
दौड़ते हैं नयी के पीछॆ |
वैसे तो ये जो ख्वाहिशों वाली मशीन है,
बिना ई. एम. आइ के आती है|
पर हुँह ! कुछ चीज़ें मुफ्त आयें ,
तब भी महँगी ही पड़ती हैं |
और ये तो कुछ ज्यादा ही महँगी पड़ी|
2 comments:
:) :) हा हा...हम भी यही सोचते हैं!!
आज गूगल पर कुछ खोजते खोजते इस आपकी इस फुलकारी पर आकर रुक गए!अच्छा लगा!!
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