जब धान की पूलियों पर ठहरी धूप,
खिड़की पर पड़ी चिक से झाँककर
विदा ले गयी थी ।
जब जाड़े के आलसी सूरज ने,
अपना बोरिया जल्दी समेटा था
और मद्धिम अम्बर जुगनुओं का मैदान बना था ।
जब रात की चादर ने
अपने दो छोरों के बीच ,
ठण्ड से सिकुड़े दिन को छुपा लिया था ।
जब कोहरा हवा में,
बालूशाही पर चाशनी सा चिपक गया था
या शायद बर्फ का काँच चमकता हुआ ,
शहर भर का श्रृंगार कर रहा था ।
जब अलाव गुनगुने गीत गुनगुना रहा था ,
और चिमनी धुएँ के बीच मुस्कुरा रही थी
जब जाड़ों का हिसाब सलाईयाँ लगा रही थीं
और तुम्हारी कविता प्रेम भरी ,
चाय के प्यालों से छलकती ,
गज़क के तिल सी महकती ,
धडकनों का सफ़र तय करती रही थी ,
री साँझ ! पता है आज तुझे छुआ तो, .
जाड़े की वो गुज़री साँझ फिर याद आयी |
4 comments:
उत्कृष्ट लेखन !!
Dhanyawaad Rajneesh ji
और तुम्हारी कविता प्रेम भरी ,
चाय के प्यालों से छलकती ,
गज़क के तिल सी महकती ,
धडकनों का सफ़र तय करती रही थी
सुन्दर अभिव्यक्ति.
शुभकामनाएँ !
नए बिम्ब, नई अभिव्यक्ति, बहुत सुन्दर कविता !
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