Friday, December 7, 2012

वो साँझ,गुज़रे किसी जाड़े की


जब धान की पूलियों पर ठहरी धूप,
खिड़की पर पड़ी चिक से झाँककर
 विदा ले गयी थी  ।
जब जाड़े के आलसी सूरज ने,
 अपना बोरिया जल्दी समेटा था 
और मद्धिम अम्बर जुगनुओं का मैदान बना था ।

जब रात की चादर ने 
अपने दो छोरों के बीच ,
ठण्ड से सिकुड़े दिन को छुपा लिया था ।
जब कोहरा  हवा में,
बालूशाही पर चाशनी सा चिपक गया था 
या शायद  बर्फ का काँच चमकता हुआ ,
शहर भर का श्रृंगार कर रहा था  ।

जब अलाव गुनगुने गीत गुनगुना रहा था ,
और चिमनी धुएँ के बीच  मुस्कुरा रही थी 
जब जाड़ों  का हिसाब सलाईयाँ  लगा रही थीं 
और  तुम्हारी कविता प्रेम भरी ,
चाय के प्यालों से छलकती ,
गज़क के तिल सी महकती ,
धडकनों का सफ़र तय करती रही थी ,

री साँझ !  पता है आज तुझे छुआ तो, .
जाड़े की वो गुज़री  साँझ  फिर याद आयी  |

4 comments:

रजनीश के झा (Rajneesh K Jha) said...

उत्कृष्ट लेखन !!

Shilpa Agrawal said...

Dhanyawaad Rajneesh ji

दीपक । Deepak said...

और तुम्हारी कविता प्रेम भरी ,
चाय के प्यालों से छलकती ,
गज़क के तिल सी महकती ,
धडकनों का सफ़र तय करती रही थी

सुन्दर अभिव्यक्ति.

शुभकामनाएँ !

ashwini kumar vishnu said...

नए बिम्ब, नई अभिव्यक्ति, बहुत सुन्दर कविता !