Thursday, October 18, 2012

सुनो पतझड़ ! तुम दार्शनिक से लगते हो |



अजीर्ण में जीवन का राग ,
जादुई रंगों के पात ,
खो कर पाने की बात  ,
सतरंगी सौंदर्य सर्वत्र ,
नयी फसल का उत्सव ,
जाड़े के आगमन का नाद 
आँगन  के अनूठे  अलाव,
जुड़ाव और फिर अलगाव, 
गिर कर उठने की सीख ,
क्षण-भंगुर माया से प्रीत ,
जीवन-मरण की रीत ,
 ना होने में होने का आभास ,
दुःख में सुख का वास ,
बसंत के फिर आने की आस ,

सुनो पतझड़ ! तुम दार्शनिक से लगते हो |

 तुम सूरज की भट्टी में तप,
गिर चुके पत्तों में कुरकुरे हो ,
कितना कुछ कहते, सुनते ,दिखाते ,सिखाते ...
..... दे जाते हो 


तुम्हारे आने में जाना निहित है ,
और उस जाने से,  आना निश्चित  है ,
तुम आरम्भ  हो ,
और तुम ही अंत हो 
या शायद तुम अनंत हो ....

1 comment:

दीपक । Deepak said...

तुम आरम्भ हो ,
और तुम ही अंत हो
या शायद तुम अनंत हो ....

सम्पूर्ण जीवन का सार इन्ही पंक्तियों में अन्तर्निहित है. शिल्पा जी, आप भी दार्शनिक सी लगती हैं