खिङकियो के जंगले पर,
हौले से इधर -उधर झाँकती है
मेरे आँगन की चटाई पर बैठ ,
मेरा हाथ बँटाती है
बरामदे की क्यारियों में,
चुपके से फूलों से बाते कर जाती है
घर के दरवाजों पर चढ- चढ,
आङी- तिरछी सूरत बनाती है
कोने में रखी सुराही से,
सारा पानी पी जाती है
मेरे गीले बालों में रुकी बून्दों को,
चोरी से साथ ले जाती है
पङोसियों की कनखियों का,
जब-तब आसरा बन जाती है
तितलियों की अठखेलियों को,
नयी दिशा दे जाती है
ताज़ा धान की पूलियों को,
भीनी-भीनी खुशबू दे जाती है
ईख के खेतों से गुज़र कर,
गुङ की मिठास साथ लाती है
कपास के सफेद फूलों को ,
इठलाता रंग दे जाती है
सरसों की फसल के बीच से,
पीले कपङे पहन कर आती है
मटर के हरे दानों से,
ताज़गी का सिंगार कर आती है
साँझ ढले चिङियों से,लौटते हुए ,
जाने क्या कह जाती है
मेरे उदास गालों को,
कभी-कभी प्यार से सहला जाती है
हाँ! जाङे की धूप किसी अपने के,
प्यार भरे आलिंगन का
मीठा एहसास दे जाती है
हौले से इधर -उधर झाँकती है
मेरे आँगन की चटाई पर बैठ ,
मेरा हाथ बँटाती है
बरामदे की क्यारियों में,
चुपके से फूलों से बाते कर जाती है
घर के दरवाजों पर चढ- चढ,
आङी- तिरछी सूरत बनाती है
कोने में रखी सुराही से,
सारा पानी पी जाती है
मेरे गीले बालों में रुकी बून्दों को,
चोरी से साथ ले जाती है
पङोसियों की कनखियों का,
जब-तब आसरा बन जाती है
तितलियों की अठखेलियों को,
नयी दिशा दे जाती है
ताज़ा धान की पूलियों को,
भीनी-भीनी खुशबू दे जाती है
ईख के खेतों से गुज़र कर,
गुङ की मिठास साथ लाती है
कपास के सफेद फूलों को ,
इठलाता रंग दे जाती है
सरसों की फसल के बीच से,
पीले कपङे पहन कर आती है
मटर के हरे दानों से,
ताज़गी का सिंगार कर आती है
साँझ ढले चिङियों से,लौटते हुए ,
जाने क्या कह जाती है
मेरे उदास गालों को,
कभी-कभी प्यार से सहला जाती है
हाँ! जाङे की धूप किसी अपने के,
प्यार भरे आलिंगन का
मीठा एहसास दे जाती है
1 comment:
आपकी कलम से गुजरकर धुप बहुत सुखद बन गई है शिल्पाजी ! . बहुत अच्छी रचना.
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