Wednesday, May 19, 2010

निराले रंग


रंग भी बहुरूपिये से रंग बदलते हैं,
कभी चटख, कभी बदरंग लगते है

पुरानी किताब की नयी ज़िल्द में,
बन-ठन कर कितना इतराते हैं

माँ की सन्दूक की साडियों में,
तहों के बीच फीके से लगते हैं

पन्ना दर पन्ना अखबार में,
खबरों में बिन-बात ही उलझते हैं

बारिश में धुल गयी दीवारों में,
चौबारे के साथ गीत गुनगुनाते हैं

दरवाज़ों पर उग आये कुकुरमुत्तों में,
मुण्डेर की काई से कोने में झगडते हैं

नुक्कड की बूढी दादी के सिंगार में,
माथे की कुमकुम बन चमकते हैं

यादों की चादर में लगे नये पैबंद में,
मूक रह कर भी कहानी गढते हैं

रंग भी बहुरूपिये से रंग बदलते हैं,
कभी चटख, कभी बदरंग लगते है

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