Monday, May 17, 2010

बादल! तुम आना पर ..........


अरे बादल, तुम आना
चाहे घनघोर घटा को साथ लाना
चाहे मूसलाधार बरस जाना
चाहे सारे ताल, नदियों को फिर भर जाना
चाहे आँगन की रंगोली के रंग बहा ले जाना ,
चाहे मुन्ने की कागज़ की नाव को दूर ले जाना,
चाहे छत पर सूखे कपड़ों को भी भिगो जाना
चाहे बरामदे में पड़ी अचार की बरनी में भर जाना
चाहे पेड़ों पर लदे कच्चे आमों को भी गिरा जाना
चाहे मुन्नी की गुड़िया की शादी के बीच में ही आ जाना


.....पर उस गरीब की झोपड़ी पर ज़रा धीरे से गिरना
उसकी छत कमज़ोर है...
टूट जायेगी

1 comment:

pawan dhiman said...

बहुत अच्छी रचना... साधुवाद