Tuesday, July 31, 2007

लम्हे

लम्हों को सज़ाकर,
करीने से तह कर दिया है,
शायद माँ के कमरे में,
कोई बक्सा हो, इन्हें छुपाने के लिये
पर जानती हूँ जब भी बन्द करती हूँ इन्हें,
किसी सन्दूक या बक्से में,
दीवार पर टँग जाते हैं ये,
आढे- तिरछे आकार लिये,
पुराने दस्तूर की खूँटी की तरह

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