Thursday, April 19, 2007

कभी किसी बिछङे से पूछो


कभी किसी बिछङे से पूछो,
कैसे घर की याद सताती है

बारिश में सौन्धी हुई मिट्टी,
मन भीतर तक गीला कर जाती है

तस्वीरों में जो बचपन थोङा बाकी है,
यादें उसकी अब भी गुदगुदाती हैं

बाज़ार में सजी कोई फुलकारी,
दूर अपने देस ले जाती है

कभी किसी बिछङे से पूछो,
कैसे घर की याद सताती है

खुशियाँ दिलासा देने जब,
कभी-कभार दस्तक दे जाती हैं,

दादी-काकी, मामी - नानी,
कहाँ बलाएँ लेने आती हैं

धुन हर गीत की पुराने,
गली के नुक्कङ तक पँहुचाती है

कभी किसी बिछङे से पूछो,
कैसे घर की याद सताती है

महकता हुआ रजनीगँधा हर,
घर के आँगन में ले चलता है

पर दीवाली का दीया भी यहाँ,
सप्ताहांत को तरसता है

लौटेगा तू कब घर अपने,
मन बार-बार ये प्रश्न करता है

कभी किसी बिछङे से पूछो,
कैसे घर की याद सताती है

अजनबी देस में, यहाँ- वहाँ,
रिश्तों की तलाश की जाती है

जाने खुद से ये आँख-मिचौली,
अभी कितने बरस बाकी है

पहचान कहीं गुम गयी है, ये गुत्थी
क्या खोया, क्या पाया सुलझ नहीं पाती है

कभी किसी बिछङे से पूछो,
कैसे घर की याद सताती है

बारिश में सौन्धी हुई मिट्टी,
मन भीतर तक गीला कर जाती है

1 comment:

Amrita.. said...

very nice!
bahut hi pyari rachna hai!
saral shabd saral vichaar saral prastuti...aur utni hi saralta se ye dil ko chu bhi gayi!
keep writing
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