आँख भर आकाश ले, पँखों पर रक्खी थी उड़ान
अब ना मीलों की गिनती, ना दूरियों का हिसाब रहा |
दिन दहकता सा उठता है और सो जाता है दहकते हुए
बेपरवाह से उस सूरज का अब जुगनुओं से नाता न रहा
वो जो धूप का कोना पकड़ कभी,
कभी बारिशों की भीगी लटें सुलझाता रहा,
सिरे जोड़ते हुए आसमाँ के ज़मीं से,
वो भोला सा बचपन बार- बार मुझे बुलाता रहा
मसरूफ़ियत के समंदर ने कुछ यों हमें समा लिया,
के इस शहर के शहरीपन ने अब हमें अपना लिया
परवाज़ की दीवानगी का असर कुछ यों हुआ
के घोंसलों पर ठिकाना अब कभी-कभार ही रहा
के समँदर पा चुके हैं अब जो,
आँसूँ हमारे गिरते नहीं,
जो गिर जाए कभी इक आँसूँ भी तो,
वो हमें बे-इंतेहा खारा लगा
मंज़िल एक के बाद दूसरी का पता बताती गयी,
आगाज़ मेरा जाने कब बे-पता हो गया
रेत सा फिसला वक्त कुछ यों,
की मंज़िल पाने का तिलिस्म जाता ही रहा
हर सुबह आईने में देख रोज़
नए मुखौटे बदल छुपाते फिरते हैं जिसे ,
उम्र लगा दी तमाम खीँचने में,
उसी तजुर्बे को आँखों के आस -पास
खोये की गिनती करूँ,
या पाये का करूँ हिसाब |
दस्तख़त कर गया है गुज़रा वक्त,
वसीयत में कर गया है ढेरों यादें मेरे नाम
चह-चहाते परिंदों के झुण्ड पीछे छूटते गए,
तड़प तो थी पर इस बंजारेपन से कभी शिकवा ना रहा ,
पर कहीं एक बहती नदी, पत्थर के उस पुल के पास,
एक भूला सा घर हर रात ख़्वाब में आवाज़ दे बुलाता रहा
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