Wednesday, November 11, 2009

कितनी बार मायूसी को दरवाज़े तक छोड़ आयी , कमबख्त जाने कहाँ से फिर आ जाती है, लगता है गाडी की पिछली सीट पर डाल कर, दूर छोड़ आना होगा, वापस आते हुए , आगे की सीट पर अल्हड हवा को बिठा लाऊंगी , शायद मेरे घर चहलकदमी करे तो मायूसी फिर ना आये

Monday, November 9, 2009

नये रंग


जब तुम पास थे,
सारा आकाश मुझमे ही था ,
बस हाथ फैला देती थी,
जब उड़ने का मन करता था |

रंग भी सब मुझ में ही थे ,
जब चाहे ब्रश डुबा के उनमे,
आस- पास रंग भर देती थी
हरा, लाल, नीला-पीला, धानी

अब तुम नहीं हो तो,
हाथ फैलाने से मन उड़ता नहीं इसलिए
अपनी पहचान का आकाश बना रही हूँ ,

और नये रंग खोज रही हूँ ,
एक मिला है आत्म -विश्वास का,
बाकी सब रंग उसी से बन जायेंगे ,
पहले से चटक और एकदम पक्के |