Thursday, October 22, 2009

नया स्वेटर


सडकों के ताने-बाने से शहर बुन दिया ,
रोशनी के चमकते धागे चुन -चुन
कसीदाकारी कर उसे नया रंग दिया |

गिरहें डाळ- डाळ राहों की,
इस कोने से वो कोना जोङा |
फंदे गिन, सलाइयों पर चढ़ा,
शहर के गले-बाजू सब बुन दिए |

आङी-तिरछी, ऊँची-नीची इमारतें बना,
इस ताने-बाने को नए दस्तूर का नाम दिया |

और फिर .........

सरपट दौङती गाङियों से
इस ताने-बाने को धड़कन भी दी |

लगता है
ऊपर वाले का बनाया बेंतहा खूबसूरत स्वेटर
कुछ ज्यादा ही
हरा था ,
इसलिए इंसान ने उधेड़ दिया, नया बुनने के लिए |
बस थोड़ी ऊन रख ली है
नये स्वेटर पर हरे बूटे काढ़ने के लिए |

इस नये को पहनने की होड़ लगी है
और ये फैलता जा रहा है फंदा-दर-फंदा |

2 comments:

Asha Joglekar said...

वाह कंक्रीट के जंगल सा शहर और स्वेटर कमाल की उपमा है । सुंदर कविता ।

Ashish (Ashu) said...

वाह शिल्पा जी ..अच्छी कविता