अबे ओ सुन बे गरीब,
क्यों रोज़ यहाँ तू आता है,
चाँद ताकता है बेफिक्री से,
फुटपाथ पर बैठ कर फिर ,
बीङी सुलगाता है,
बता तो ज़रा,
कितना कमाता है
कि बेफिक्री खरीद लाता है|
बोला वो गरीब,
बेफिक्री पँहुचाने रोज़ ,
चाँद मेरी झोंपङी तक आता है,
रख लेती है एक बर्तन में,
चाँद को फिर मेरी औरत|
चम्मच में भरकर कभी,
थाली में परोसती है चाँद मेरी औरत|
बूढी माँ को दवा की शीशी में,चाँद भर कर देती है मेरी औरत|
बच्चो को खेलने के लिये,
चाँद खिलौना ला देती है मेरी औरत|
छोटे-छोटे टुकङों में चाँद को काटकर,
कितनी ही टाफियाँ बना देती है मेरी औरत|
कभी-कभी बोतल में भरकर,
चाँद को नशीला बना देती है मेरी औरत|
रोज़ मेरे खाली बटुए में,
एक चमकता चाँद रख देती है मेरी औरत|
थकी हुई आँखों में नींद बुलाने को,
दो बूंद चाँद आँख में डाल देती है मेरी औरत |
बूढे हो चले मेरे चेहरे को,
चाँद कह्ती है पगली सी मेरी औरत|
जो पूछा मैने फिर,
है कहाँ,
दिखती नही चाँद चखाने वाली तुम्हारी औरत|
वो हँसा और इशारा कर बोला,
लाल गाङी वाले उस बंगले में,
तवे पर चाँद सेकने गयी है मेरी औरत|
उस बङे घर के बङे और बच्चों को,
थाली में चाँद परोसने गयी है मेरी औरत|
उस घर में चाँद की बेफिक्री घुटती है,
खुली हवा में दिलाने को साँस,चाँद को साथ ले आयेगी मेरी औरत|
5 comments:
मार्मिक!
शिल्पा जी,बहुत सुन्दर रचना है।एक गरीब की व्यथा को बहुत बढिया शब्द दिए हैं।बहुत मार्मिक!!
चाँद तका उसने और बोला,
पिछले साल एक तेज़ मोटर के नीचे दब,
चाँद के पास माँ और बच्चो के साथ,
चाँद के देश चली गयी मेरी औरत|
शिल्पा जी,बहुत सुन्दर रचना है।एक गरीब की व्यथा को बहुत बढिया शब्द दिए हैं।बहुत मार्मिक!!
चाँद तका उसने और बोला,
पिछले साल एक तेज़ मोटर के नीचे दब,
चाँद के पास माँ और बच्चो के साथ,
चाँद के देश चली गयी मेरी औरत|
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आखर आखर फूल.......
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