Thursday, December 18, 2008

ओ रे रचयिता !



कैसे तुम मौसम बुनते हो,
चुन-चुन के बादल धुनते हो,
बुढिया माई के चरखे से कते,
कच्चे सूत की चादर सा रंग देते हो|

कभी हरी, कभी केसरिया,
चूनर धरा की तुम रंग देते हो|
और कभी बादल से सफेद ऊन चुरा,
उस पर दादी की लोई जैसी,
बर्फ की चादर ढक देते हो

नीले काँच का आकाश बना,
एक साथ सात रंगों की तूलिका चला,
हाथी, घोङे, राजा-रानी, परियों की
,जाने क्या-क्या कहानियाँ गढ देते हो|

पूस की रात में, पातों को,
ठण्ड से सिकुङा देते हो
सुबह उनपर ओस की बूंदे गिरा देते हो,
और फिर उनमें नन्हा सूरज चमका देते हो|

तुम भँवरे को पंख देते हो,
तुम फूलों को रंग देते हो,
तुम ही हो जो बसंत ऋतु को ,
हर वर्ष आने का निमंत्रण देते हो|

तुम सूरज के साथ रथ पर सवार हो आते हो,
और रात को चँद्रमा बन मेरी छत पर मुस्काते हो|
तुम धूप बन रेत पर पसर जाते हो|
तुम बरखा बन अल्ह्ङ लङकी सा बचपना कर जाते हो|
तुम लहर बन सागर को दूधिया रंग जाते हो|

तुम रचयिता हो, तुम इतना सब रचते हो,
शायद हज़ार हाथ होंगे तुम्हारे,
जिनसे तुम अथक परिश्रम करते हो,
फिर क्यों नहीं तुम सारी नफरत समेट,
इस दुनिया को सिर्फ प्यार से भर देते हो|

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