Wednesday, September 17, 2008

नन्ही सी छाँव


सुलझी कभी, कभी अनसुलझी पहेली बन जाता है,
जब मुट्ठी खोल कर यों ही बंद कर जाता है|

कानों में काँच की चूङी सा खनक जाता है,
जब बिन बात यों ही तू खिलखिलाता है|

कोठरी के रोशनदान सा चमक जाता है,
जब झप से झप-झप आँखें झपकाता है|

बचपन के मायने दीवारों पर समझाता है,
जब हथेलियों से उन पर निशान बनाता है|

दिन भर लुका-छिपी का खेल दोहराता है,
जब पर्दे के पीछे अनजाने ही छुप जाता है|

मिट्टी और पौधे का रिश्ता बन जाता है,
जब आकर गोद में मेरी तू सो जाता है|

कङी धूप में नन्ही सी छाँव सा बन जाता है,
जब बिन बोले ही तू मुझको माँ कह जाता है|

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