सुलझी कभी, कभी अनसुलझी पहेली बन जाता है,
जब मुट्ठी खोल कर यों ही बंद कर जाता है|
कानों में काँच की चूङी सा खनक जाता है,
जब बिन बात यों ही तू खिलखिलाता है|
कोठरी के रोशनदान सा चमक जाता है,
जब झप से झप-झप आँखें झपकाता है|
बचपन के मायने दीवारों पर समझाता है,
जब हथेलियों से उन पर निशान बनाता है|
दिन भर लुका-छिपी का खेल दोहराता है,
जब पर्दे के पीछे अनजाने ही छुप जाता है|
मिट्टी और पौधे का रिश्ता बन जाता है,
जब आकर गोद में मेरी तू सो जाता है|
कङी धूप में नन्ही सी छाँव सा बन जाता है,
जब बिन बोले ही तू मुझको माँ कह जाता है|
No comments:
Post a Comment