Friday, September 1, 2017

स्त्रीत्व का सृजन


स्त्रीत्व का सृजन


सुन री सृजनहारी!

 

कोमलांगी, गौरवर्णा , चंचल, मृदुला 

इन्हीं छद्म उपमाओं से हो रही तू पराजित

बूझ ले, जान ले विडम्बना को इस 

और न होने दे स्वयं को शापित |


यों तो देवी बन

सदियों सदी हर लोक में तू पूज्यनीय रही 

फिर भला वाचालों की चौपड़ चालों में

कुटिल दाँवों में क्यों दाँव  लगती रही


सौंदर्य की परिभाषाएँ जब तू गढ़ ना पायी,

दर्पित राजकुमारों के कुटिल हास्य को पढ़ ना पायी 

अंग-भंग हुआ तेरा ही पर तू कुटिला,तू ही सूर्पनखा कहलाई,

और इतिहास में पुरुष मर्यादा को तनिक आँच भी ना आयी

 

सुन री सृजनहारी!

 

तू मीरा सी साधिका,

तू प्रेम करे तो बने राधिका,

तू ठाने तो तोड़ दे विश्वामित्र का अहंकार

और नृत्य करे तो स्वयं देव करे जय- जय ही जयकार


तू यशोधरा सी मात-पिता दोनों बनी
जब सोते पूत को छोड़ चले बुद्ध होने को  सिद्धार्थ
तू सीता सी राजकुमारी
हर अग्नि परीक्षा का झेल गयी प्रहार

 

तू बनी कल्पना सी,

जो उड़ान भर, छू आई उस अनदेखे अंतरिक्ष को,

तू बनी वो तारा, जो खोकर भी

सदा याद रह गयी जन - मानुस को

 

सुन री सृजनहारी!

जब तू प्रकृति से ही जननी है,

दे जन्म अपनी नयी पहचान को

नहीं तू दासी, पर जान ले साथ ही 

नहीं है मान कोई, बस नाम भर के "देवी" उपनाम में,



मत हो दिग्भ्रमित

देवी के पद्मासन से उतर,

दासी के पायदान से उठ कर,

छोड़ अचला- अबला सी  बैसाखियाँ 

शिक्षा को बना अपना हथियार,

भर  वाणी में जोश अपनी,

तू बन सूर्य की सारथी

कर प्राण- प्रतिष्ठा अब नए निर्माण की 

तब तू दम्भ भर स्त्री होने का 

क्योंकि बस सौंदर्य नहीं, सृजन है तेरे स्त्रीत्व की पहचान सही |

1 comment:

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’हिन्दी ग़ज़ल सम्राट दुष्यंत कुमार से निखरी ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...