Thursday, September 5, 2013

तमसो मा ज्योतिर्गमय !


चुप्पियों के पीछे छुपे,
शब्द बीनने हैं  ,
जैसे बीना जाता है,
एकदम धवल चावलों के बीच ,
 परात में धान .

लापरवाह उँगलियाँ चूक जाएँ तो,
फिर ओझल हो  जाता है ये धान,
 ओट में चावलों की ,
और संख्या का गणित लगा,
खेलते हैं चावल एकतरफा लुका-छिपी 

पर फिर भी ,
ऐनक पहनकर दूरदर्शिता की ,
ढूँढने हैं शब्द ,
जो बन सकें हथियार 
परिवर्तन का,

बीनना है ऐसा धान,
जो बन सकें समिधा ,
भ्रष्टाचार के हवन की ,
जो बन सके किरकिरी ,
मुनाफाखोरों की खीर की ,

जो बन सके अक्षत ,
प्रगति और नवनिर्माण का |
जो कर सके शब्द 
कलुषित नीति और राजनीति पर,
जो अर्घ दे 
सत्य के सूरज को |

इसलिए
तोलना है हर चावल को उँगलियों पर  ,
और भ्रष्टाचार से खोखले और थोथों की भीड़ में ,
दुर्लभ हो चुके धवल को चुनना है, 

जिससे हम आश्वस्त हो कह सकें ,
तमसो मा ज्योतिर्गमय !
तमसो मा ज्योतिर्गमय !