Thursday, September 29, 2011

महँगाई रे महँगाई !



महँगाई रे महँगाई ,
जमी जमाने में जैसे ससुराल जमा जमाई |
सूर्पनखा जैसे क्यों तूने नाक कटाई ,
बार-बार भरे बाज़ार रोज़ गाली खाई |
दुर्योधन सी दुष्टता जाने कहाँ से लायी,
दीन की दरिद्रता पर दया तुझे ना आयी |
पूंजीपतियों की पूज्य बन उनकी पूंजी बढ़ाई,
चूल्हे की चिंगारी की चाह भी तूने कहीं मिटायी |
नेता ने नित्य नया नीतोपदेश दिया तेरे नाम पर,
जन- गण-मन ज़ुल्म की तेरे आठों प्रहर दे दुहाई |
तन्ख्वाह छोटी, मोटी ज़रुरत दिनोदिन और मुटियाई,
थैले में पैसे ले जाते तब जेब में राशन लाते भाई
पाई-पाई जोड़ी पर बचत जरा ना हो पायी,
फुर्र से फुर्र-फुर्र हुयी गाढ़े पसीने की कमाई |
कहीं मखमल पर सोने वालों को देती विदेशी रजाई ,
कहीं जाड़े में छीनती बेघर से सग्गड़ की गर्मायी |
कहीं भरे पेट का पेटा भर, घोटाले का चूरन लायी,
कहीं आसमान तले भूखे पेट ने सिकुड़कर रात बितायी |
महँगाई रे महँगाई, अपना जवाब किस चाणक्य को बता कर तू आयी |