Thursday, June 23, 2011

अम्मा क्यों नहीं वो बचपन वापस आता


अम्मा क्यों नहीं वो बचपन वापस आता ,
जब तेरी कचौड़ी बिन गिने खाता था
देसी घी पड़े साग को खा ,
मन को कोई डर ना सताता था,
तेरे हाथ के लड्डू की महक से ,
स्कूल से ही दौड़ा आता था
गोल गुलाबजामुन देख कढाई में
बाल मन बल्लियों उछल जाता था
अम्मा क्यों नहीं वो बचपन वापस आता ,
जब दिन चढ़े तक बेफिक्री से सोता था
भरी दोपहर में फिर खुले आसमान तले,
कंचे, गिल्ली-डंडा, चोर-सिपाही खेला करता था
अम्मा क्यों नहीं वो बचपन वापस आता ,
जब आम -अमरुद के बागों में नाचते कूदते ,
बिन चिंता के सारा दिन निकल जाता था
आज कचौड़ी मुंह चिढ़ाती सी डराती लगती है,
गुलाब-जामुन, लड्डू बचपन के रूठे दोस्त हुए,
आम के बाग़ , शहतूत के पेड़ किस्से-कहानी हुए,
कंचे, गिल्ली- डंडा बीते जन्म की बात हुई
अम्मा क्यों नहीं वो बचपन वापस आता
जब उडती पतंग सा मन निश्छल लहराता था
जब- घड़ी की टिक-टिक से चलती दिनचर्या में नहीं,
छोटी-छोटी खुशियों में जीवन-सार नज़र आता था

Tuesday, June 21, 2011

वो पलाश का पेड़




वो पलाश का पेड़,
अब बूढा हो चला है
देखा है कई बार ,
थकी सी दोपहर को ,
उसके तने से पीठ टिका,थकन मिटाते
पाया है कई बार,
कोमल पुष्पों का आलिंगन कर,
छाँव को उस पलाश के नीचे पसर जाते
वो पलाश का पेड़,
जो अब बूढा हो चला है -
गंगा नदी को आराध्य बना,
नित्य ही पुष्पांजलि दिया करता था
अल्हड़ता से कुसुमित हो,नटखट बालक सा,
उन्मुक्त भावों का सन्देश दिया करता था
नव-विवाहिता की पालकी पर, पुष्पवर्षा कर,
'सदा सुहागन रहो' का आशीर्वाद दिया करता था
फ़ाग के रंगों में घुलता,कभी पिसता,
त्यौहारों में हर चेहरे पर चहका करता था
बसंत ऋतु के आगमन पर प्रकृति पर,
चटख रंगों से हस्ताक्षर किया करता था
गहरे रंगों में अपनी कूची डुबा,
संध्या की ओढ़नी रंगा करता था
डाल-डाल पर नीड़ में कलोल से,
सांध्य-वंदना के समय गूंजा करता था
पुष्पों में ज्योति सा दैदीप्य लिये,
नित्य ही दीपदान किया करता था
जाड़ों में पात-विहीन हो ठूँठ सा हाथ जोड़े,
दैव्याभिशाप का पश्चाताप किया करता था
वो पलाश का पेड़,
जो अब बूढ़ा हो चला है,
इस वर्ष बसंत ऋतु पर हस्ताक्षर नहीं कर पायेगा,
प्रकृति और प्रगति के द्वंद्व में वो हार जायेगा