Friday, December 19, 2008

उसने चाँद चखा है



अबे ओ सुन बे गरीब,
क्यों रोज़ यहाँ तू आता है,
चाँद ताकता है बेफिक्री से,
फुटपाथ पर बैठ कर फिर ,
बीङी सुलगाता है,
बता तो ज़रा,
कितना कमाता है
कि बेफिक्री खरीद लाता है|

बोला वो गरीब,
बेफिक्री पँहुचाने रोज़ ,
चाँद मेरी झोंपङी तक आता है,

रख लेती है एक बर्तन में,
चाँद को फिर मेरी औरत|

चम्मच में भरकर कभी,
थाली में परोसती है चाँद मेरी औरत|

बूढी माँ को दवा की शीशी में,
चाँद भर कर देती है मेरी औरत|

बच्चो को खेलने के लिये,
चाँद खिलौना ला देती है मेरी औरत|

छोटे-छोटे टुकङों में चाँद को काटकर,
कितनी ही टाफियाँ बना देती है मेरी औरत|

कभी-कभी बोतल में भरकर,
चाँद को नशीला बना देती है मेरी औरत|

रोज़ मेरे खाली बटुए में,
एक चमकता चाँद रख देती है मेरी औरत|

थकी हुई आँखों में नींद बुलाने को,
दो बूंद चाँद आँख में डाल देती है मेरी औरत |

बूढे हो चले मेरे चेहरे को,
चाँद कह्ती है पगली सी मेरी औरत|

जो पूछा मैने फिर,
है कहाँ,
दिखती नही चाँद चखाने वाली तुम्हारी औरत|

वो हँसा और इशारा कर बोला,
लाल गाङी वाले उस बंगले में,
तवे पर चाँद सेकने गयी है मेरी औरत|
उस बङे घर के बङे और बच्चों को,
थाली में चाँद परोसने गयी है मेरी औरत|
उस घर में 
चाँद की बेफिक्री घुटती है,
खुली हवा में दिलाने को साँस,चाँद को साथ ले आयेगी मेरी औरत|

Thursday, December 18, 2008

ओ रे रचयिता !



कैसे तुम मौसम बुनते हो,
चुन-चुन के बादल धुनते हो,
बुढिया माई के चरखे से कते,
कच्चे सूत की चादर सा रंग देते हो|

कभी हरी, कभी केसरिया,
चूनर धरा की तुम रंग देते हो|
और कभी बादल से सफेद ऊन चुरा,
उस पर दादी की लोई जैसी,
बर्फ की चादर ढक देते हो

नीले काँच का आकाश बना,
एक साथ सात रंगों की तूलिका चला,
हाथी, घोङे, राजा-रानी, परियों की
,जाने क्या-क्या कहानियाँ गढ देते हो|

पूस की रात में, पातों को,
ठण्ड से सिकुङा देते हो
सुबह उनपर ओस की बूंदे गिरा देते हो,
और फिर उनमें नन्हा सूरज चमका देते हो|

तुम भँवरे को पंख देते हो,
तुम फूलों को रंग देते हो,
तुम ही हो जो बसंत ऋतु को ,
हर वर्ष आने का निमंत्रण देते हो|

तुम सूरज के साथ रथ पर सवार हो आते हो,
और रात को चँद्रमा बन मेरी छत पर मुस्काते हो|
तुम धूप बन रेत पर पसर जाते हो|
तुम बरखा बन अल्ह्ङ लङकी सा बचपना कर जाते हो|
तुम लहर बन सागर को दूधिया रंग जाते हो|

तुम रचयिता हो, तुम इतना सब रचते हो,
शायद हज़ार हाथ होंगे तुम्हारे,
जिनसे तुम अथक परिश्रम करते हो,
फिर क्यों नहीं तुम सारी नफरत समेट,
इस दुनिया को सिर्फ प्यार से भर देते हो|